Tuesday, November 19, 2013

हिन्दू धर्म की मुख्य बातें

किसी भी धर्म के मूल तत्त्व उस धर्म को मानने वालों के विचार, मान्यताएं, आचार तथा संसार एवं लोगों के प्रति उनके दृष्टिकोण को ढालते हैं। हिंदू धर्म की बुनियादी पांच बातें तो है ही, (1.वंदना, 2.वेदपाठ, 3.व्रत, 4.तीर्थ, और 5.दान) लेकिन इसके अलावा निम्न ‍सिद्धांत को भी जानें:-

1. ब्रह्म ही सत्य है:
 ईश्वर एक ही है और वही प्रार्थनीय तथा पूजनीय है। वही सृष्टा है वही सृष्टि भी। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी उस ईश्वर के संदेश वाहक है। हजारों देवी-देवता उसी एक के प्रति नमन हैं। वेद, वेदांत और उपनिषद एक ही परमतत्व को मानते हैं।

2. वेद ही धर्म ग्रंथ है :
कितने लोग हैं जिन्होंने वेद पढ़े? सभी ने पुराणों की कथाएं जरूर सुनी और उन पर ही विश्वास किया तथा उन्हीं के आधार पर अपना जीवन जिया और कर्मकांड किए। पुराण, रामायण और महाभारत धर्मग्रंथ नहीं इतिहास ग्रंथ हैं। ऋषियों द्वारा पवित्र ग्रंथों, चार वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एवं अचूकता पर जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ़ नींव को बनाए रखता है।

3. सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय : 
सनातन हिन्दू धर्म की मान्यता है कि सृष्टि उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अनंत प्रक्रिया पर चलती है। गीता में कहा गया है कि जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अदृश्य से दृश्यमान हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अदृश्य में लीन हो जाता है। वह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्वों से मिलकर बनी है। परमेश्वर सबसे बढ़कर है।

4. कर्मवान बनो :
सनातन हिन्दू धर्म भाग्य से ज्यादा कर्म पर विश्वास रखता है। कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है। कर्म एवं कार्य-कारण के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रिया से अपनी नियति स्वयं तय करता है। इसी से प्रारब्ध बनता है। कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया गया है।

5. पुनर्जन्म : 
सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हुई आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से ही यह चक्र समाप्त होता है।

6. प्रकृति की प्रार्थना : 
वेद प्राकृतिक तत्वों की प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते हैं। ये नदी, पहाड़, समुद्र, बादल, अग्नि, जल, वायु, आकाश और हरे-भरे प्यारे वृक्ष हमारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं अत: इनके प्रति कृतज्ञता के भाव हमारे जीवन को समृद्ध कर हमें सद्गति प्रदान करते हैं। इनकी पूजा नहीं प्रार्थना की जाती है। यह ईश्वर और हमारे बीच सेतु का कार्य करते हैं। यही दुख मिटाकर सुख का सृजन करते हैं।

7.गुरु का महत्व : 
सनातन धर्म में सद्‍गुरु के समक्ष वेद शिक्षा-दीक्षा लेने का महत्व है। किसी भी सनातनी के लिए एक गुरु (आध्यात्मिक शिक्षक) का मार्ग दर्शन आवश्यक है। गुरु की शरण में गए बिना अध्यात्म व जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ना असंभव है। लेकिन वेद यह भी कहते हैं कि अपना मार्ग स्वयं चुनों। जो हिम्मतवर है वही अकेले चलने की ताकत रखते हैं।

8.सर्वधर्म समभाव :
 'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः'- ऋग्वेद के इस मंत्र का अर्थ है कि किसी भी सदविचार को अपनी तरफ किसी भी दिशा से आने दें। ये विचार सनातन धर्म एवं धर्मनिष्ठ साधक के सच्चे व्यवहार को दर्शाते हैं। चाहे वे विचार किसी भी व्यक्ति, समाज, धर्म या सम्प्रदाय से हो। यही सर्वधर्म समभाव: है। हिंदू धर्म का प्रत्येक साधक या आमजन सभी धर्मों के सारे साधु एवं संतों को समान आदर देता है।

9.यम-नियम : 
यम नियम का पालन करना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है। यम अर्थात 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह। नियम अर्थात 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

10. मोक्ष का मार्ग : 
मोक्ष की धारणा और इसे प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया गया है। यह सनातन धर्म की महत्वपूर्ण देन में से एक है। मोक्ष में रुचि न भी हो तो भी मोक्ष ज्ञान प्राप्त करना अर्थात इस धारणा के बारे में जानना प्रमुख कर्तव्य है।

11 संध्यावंदन : 
संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पांच या आठ वक्त (समय) की मानी गई है, लेकिन सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

12. श्राद्ध-तर्पण :
 पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का सनातन हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है।

13.दान का महत्व :
दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गांठे खोलना जरूरी है, ‍जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है।

14.संक्रांति : 
भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीतिरिवाज हो चले हैं। यह लंबे काल और वंश परम्परा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिंदू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ समाजों ने मांस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। रात्रि के सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं।
उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथों, धर्मसूत्रों और आचार संहिता में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है।

15.यज्ञ कर्म : 
वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं-1.ब्रह्मयज्ञ, 2.देवयज्ञ, 3.पितृयज्ञ, 4.वैश्वदेव यज्ञ और 5.अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं।
16.वेद पाठ : कहा जाता है कि वेदों को अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।

Friday, November 15, 2013

मुहर्रम : कैसे हुई ताजियों की शुरुआत

ताजियों की परंपरा

मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन्‌ का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है।
इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक ‍शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ-सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन्‌ 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया।
फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था।
तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से 'कब्र' या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।
तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया। तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है।
जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही।

तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन्‌ नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था ।

Tuesday, November 5, 2013

भारतीय अर्थव्यवस्था

देश 1947 में आज़ाद हो गया था । आज़ादी के नशे में आज भी हम डूबे हुए हैं। लेकिन आज़ादी के बाद हमने क्या खोया क्या पाया इस पर भी समाज में समुद्र मंथन चल रहा है। इस समुद्र मंथन के बीच आज हर भारतीय नागरिक को आत्म मंथन करने की ज़रुरत है कि क्या हम वित्तीय रुप से आज भी आज़ाद है ? देश का प्राचीन नाम आर्यावर्त है और देश को सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था । जिस देश में सोने की खान हो , वो सोने की चिड़िया आखिर कहाँ फुर्र हो गयी ? लेकिन एक सच ये भी है कि जब भी इस सोने की चिड़िया का नाम सात समंदर पार लिया जाता है तो पूरी दुनिया केवल नाम से ही देश पर सोना उड़ेलने के लिए तैयार रहती है । तो फिर सवाल ये उठता है कि जब देश पर सोना उगलना और सोना न्यौछावर होना दोनो शामिल है तो फिर कहाँ पर हमारी कमी रह गयी ? जो भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं को हम दुरुस्त नहीं कर पाये हैं ? इन्हीं सब बातों को खंगालती हमारी ये विशेष रिपोर्ट ...... अब अगर भारतीय अर्थव्यवस्था के अतीत को झांके तो इसे दो भागों में याद किया जा रहा है।

एक तो 1991 से पहले का इतिहास और दूसरा 1991 के बाद का इतिहास जो वर्तमान में चल रहा है।

1991 के पहले यानी भारत की अर्थव्यवस्था का परिचय बहुत ही विडंबनाओं से घिरा मंद विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में याद किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनो और मानवीय शक्ति होने के बावजूद भी देश की अर्थव्यवस्था गरीबी, बेकारी, अशिक्षा के मकड़जाल में फंसी रही । इस जाल से बाहर आने के लिए ज़रुरत थी एक ऐसे आयोजन की जो इस जाल में फड़फड़ा रही अर्थव्यवस्था को बाहर निकाल सके । लेकिन जब देश को आज़ाद कराने के लिए ख़ून से सींचकर उसे मजबूत बनाया जा रहा था कि फिरंगियों से लोहा ले, तभी देश के नागरिक वित्तीय खाका भी बना रहे थे । भले ही उस खाके को अमली जामा न पहनाया जा सका हो। लेकिन नींव तो रख ही दी गयी थी । सन 1934 में सबसे पहले एम विश्वेश्वरैया ने “प्लांड इकोनामी ऑफ इंडिया” नामक पुस्तक में आर्थिक योजनाओं की रूपरेखा लिखी थी । बाद में सन 1938 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में “नेशनल प्लानिंग कमेटी” बनायी गयी। इसके बाद देश के समक्ष एक – एक कर तीन विकास योजनाएं रखी गयीं । सर्वप्रथम भारत के चुने हुए आठ व्यवसयियों ने सन 1943 में एक योजना प्रस्तुत की, जो “मुंबई योजना” के नाम से जानी जाती है । ठीक उसी समय एम. एन राय ने “जन योजना” नामक एक नयी योजना प्रस्तुत की । इसके बाद मन्नारायण ने एक योजना तैयार की जिसे “गाँधी योजना” के नाम से जाना जाता है । लेकिन ये सभी योजनायें लागू नहीं हो सकी क्योंकि उस समय देश ग़ुलाम था । अंतत: जब देश आज़ाद हुआ तो भारत सरकार ने 1950 में योजना आयोग का गठन किया और इसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। इस योजना का मकसद है गरीबी दूर करना और जन-साधारण के जीवन स्तर को ऊपर उठाना । इस योजना आयोग ने पंच वर्षीय योजनाएं बनाना शुरु किया और पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल 1951 को शुरु की गयी ।  ये पंच वर्षीय योजनाएं पाँच साल के लिए बनायी जाती हैं। जिसमें हर पंच वर्षीय योजना में कोई न कोई लक्ष्य बनाकर पूरा किया जाता है। चौथी पंचवर्षीय योजना में गरीबी हटाओ जोड़ा गया था । तब से कितनी गरीबों के लिए योजनाएं चल रही हैं और आज भी वही नारा है गरीबी हटाओ। अब गरीबी हटायी गयी है या फिर गरीब ही हट गये हैं ये एक अलग बहस का मुद्दा है। सातवीं पंचवर्षीय योजना 1985 से 1990 तक रही । अस्सी के दशक से ही आर्थिक सुधारों का बीज बोना शुरु कर दिया गया था।         इसके बाद आठवीं पंचवर्षीय योजना केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता के कारण अपने निर्धारित समय से दो साल देरी से शुरु हुई । यहीं से अर्थव्यवस्था का दूसरा इतिहास कहा जा सकता है। 1992 से 1998 में आठवीं पंचवर्षीय योजना रही । ये  एक ऐसा दौर था जब देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा था । नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक सुधारों के साथ राजकोषीय सुधारों की प्रक्रिया जारी की, ताकि अर्थव्यवस्था को एक नयी गति प्रदान की जा सके । आठवीं योजना का मूल उद्देश्य विकास मानव विकास करना था । मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, और अर्थव्यवस्था की एक नयी पटरी बिछाई गयी । इसी समय आर्थिक क्षेत्र में आम आदमी की रुचि तब और जाग गयी जब धीरूभाई अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के शेयर मध्यम वर्ग के लोगों को एलॉट किये । आर्थिक बीज तो भारत में अस्सी के दशक में ही बो दिये गये थे। लेकिन इसमें क्रांति आयी नब्बे के दशक में । ओपेन मार्केट यानी खुला बाज़ार भी इसी झोंके में आया। आर्थिक गुब्बारे में हवा सबसे ज्यादा इसी समय भरी गयी थी और उसी पटरी से हमने विकास तो किया लेकिन अब उसी पटरी पर दरारें भी दिखायी देने लगी हैं।  

महंगाई का सामना –
 शताब्दी एक्सप्रेस से भी तेज रफ्तार से भाग रही महंगाई एक्सप्रेस का कोई बाल का बांका नहीं कर पा रहा है। देश के अर्थशास्त्री जनक महंगाई पर चढ़ाई करने के लिए तमाम तरह के जमूरे लगाने का दावा कर रहे हैं। लेकिन महंगाई मंच सुलझने के बजाय उलझता जा रहा है। महंगाई के आंसू तो बॉलीवुड जगत भी बहा रहा है। भले ही वो इन्ही आंसुओं से मलाई खा रहा हो। साठ के दशक में भी महंगाई का रोना था तब महंगाई के बोल सिनेमा जगत में थे  बाकी जो बचा सो महंगाई मार गयी और आज भी महंगाई को प्रमोशन देकर सिनेमा जगत कह रहा है  महंगाई डायन सब खाये जात है...   सवाल फिर वही है हमारे सामने कि आखिर महंगाई मंच को कैसे सुलझाया जाये... चीते की रफ्तार से महंगाई भाग रही है। इसे पकड़ने के लिए क्या सरकार को दोषी बताकर इतिश्री कर लें या फिर इस महंगाई रानी से बचने के कोई रास्ते निकाले जायें। अर्थशास्त्र का एक नियम है माँग और आपूर्ति दोनो एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती ( इनवर्सिली प्रपोशनल) होते है। यानी माँग बढ़ गयी तो महंगाई बढ़ गयी और माँग कम हो गयी तो महंगाई कम हो गयी। ऐसे में जरूरत है इस समीकरण से बचने के लिए आय कैसे बढ़ायें .... आय बढ़ाने के लिए कई आयामों पर सोचना होगा जिससे महंगाई के डसने से बच सकें। अब तो सरकार की तरफ से भी आर्थिक रुप से विकास करने के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलायी जा रही हैं। शेयर बाज़ार, आई. पी.ओ., के. पी.ओ., वायदा बाज़ार आदि न जाने अनगिनित बाजार में आ गये हैं। जहाँ से आर्थिक विकास के दरवाजे खुलते हैं और जन-जन का विकास संभव है।